बीर कुँवर सिंह | अंग्रेजों को अकेले पानी पिलाने वाला बिहारी बीर, जिसने हाथ में गोली लगने पर अपना एक हाथ काटने वाला बीर

                               वीर कुँवर सिंह

बाबू कुँबर सिंह तेगवा बहादुर
बंगला पर उड़ेला अ्बीर.......

फाल्गुन माह के प्रारंभ होते ही इस तरह के गीत अक्सर बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में सुनाई पड़ने लगते हैं। यह गीत बाबू कुँवर सिंह की शौर्य गाथा का प्रतीक है । उनके जीवन से संबूंधित आज भी कुछ ऐसी बातें प्रचलित हैं, जिन पर सहसा किसी को विश्वास नहीं होता। शायद हम भी विश्वास नहीं कर पाएँ। एक समय की बात है। अंग्रेजी फौज बाबू कुँवर सिंह का पीछा करते हुए गंगा नदी के तट पर पहुँच गयी। बाबू कुँवर सिंह नाव से गंगा नदी को पार कर रहे थे। अचानक अंग्रेजों की गोली उनके दाहिने हाथ में लगी। बिना एक क्षण की देरी किए बाबू कुँवर सिंह ने अपनी ही तलवार से उस हाथ को काटकर गंगा मैया को भेंट चढ़ा दी। है न आश्चर्यजनक एवं अविश्वसनीय बात! प्रसिद्ध नाटककार एवं कवि स्व. रामेश्वर सिंह 'कश्यप' ने इसी घटना को कविता के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किया।
"मातु गंग
तोहरा तरंग पर
हमारे बाँह अरपित बा।"

दूसरी घटना जो उनके जीवन से ही संबंधित है। कहा जाता है कि जगदीशपुर से आरा के बीच बाबू कुँवर सिंह ने एक सुरंग का निर्माण करवाया था। वे उसी सुरंग से घोड़े पर सवार होकर जगदीशपुर से आरा तथा आरा से जगदीशपुर आते-जाते थे। इस सुरंग का प्रयोग वे प्रायः युद्ध के समय किया करते थे। आज भी इस सुरंग के अवशेष आरा के महाराजा कॉलेज में देखे जा सकते हैं। जो आज भी एक पहेली बनी हुई है। वीर कुँवर सिंह का जन्म भोजपुर (आरा) जिला के जगदीशपुर गाँव में सन् 1782 ई. में हुआ था। इनके पिता का नाम साहबजादा सिंह तथा माता का नाम पंचरतन कुँवर था। उनके पिता जगदीशपुर रियासत के जमींदार थे। कुँवर सिंह की शिक्षा की व्यवस्था उनके पिता ने घर पर ही की थी । जहाँ उन्होंने संस्कृत के अलावा फारसी भी सीखी, (परंतु बाबू कुँवर सिंह का मन घुड़सवारी, तलवारबाजी और कुश्ती लड़ने में लगता था।
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बाबू कुँवर सिंह ने अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् 1827 ई. में अपनी रियासत की जिम्मेदारी संभाली) उन दिनों ब्रिटिश हुकूमत का अत्याचार चरम पर था। इस अत्याचार का विरोध तथा इस व्यवस्था को बदलने का संकल्प बाबू कुँवर सिंह ने मन-ही-मन ले लिया और उस दिन की प्रतीक्षा करने लगे, जब उन्हें अंग्रेजों से लोहा लेने का सही वक्त मिलेगा। 1857 की क्रांति का शंखनाद हो चुका था। बाबू कुँवर सिंह इसी अवसर की तलाश में थे। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के विरोध का बिगुल फूक दिया। 25 जुलाई, 1857 को दानापुर छावनी की सैनिक टुकड़ी ने विद्रोह कर दिया। बाबू कुँवर सिंह का सम्पर्क इनसे पहले से ही था। सैनिक सोन नहर पार कर आरा की ओर चल पड़े। आरा पहुँचकर सैनिकों ने बाबू कुँवर सिंह का जयघोष करते हुए जेल की सलाखें तोड़ डाली और कैदियों को आजाद करा लिया। 27 जुलाई, 1857 को बाबू कुँवर सिंह ने आरा पर विजय प्राप्त की तथा सिपाहियों ने उन्हें फौजी सलामी दी। इस समय तक आरा 1857 की क्रांति के विद्रेह का केन्द्र स्थल तथा बाबू कुँवर सिंह इस क्रांति के नेता के रूप में उभर चुके थे
आरा की इस लड़ाई की ज्वाला बिहार में सर्वत्र फैल चुकी थी। अंग्रेजों ने अपना दमन-चक्र चलाया। बाबू कुँवर सिंह एवं अंग्रेजी फौज के बीच भीषण युद्ध हुआ। अंततः 13 अगस्त, 1857 को अंग्रेजी फौज ने बाबू कुँवर सिंह की सेना को पराजित कर जगदीशपुर पर अधिकार कर लिया। फिर भी, बाबू कुँवर सिंह का मनोबल नहीं टूटा। उन्होंने अंग्रेजों से इसका बदला लेने की ठानी। इसके लिए उन्होंने योजना बनानी
प्रारंभ कर दी। उन्होंने रीवा, काल्पी, कानपुर, लखनऊ आदि स्थानों की यात्रा की तथा वहाँ के राजाओं एवं जरमीदारों से मुलाकात की। उनकी कीर्ति परे उत्तर भारत में फैल गयी। कुँवर सिंह की इस विजय यात्रा से अग्रेजों के होश उड़ गए। कई स्थानों के सैनिक एवं राजा, कुँवर सिंह की अधीनता में लड़े। आजादी की यह यात्रा आगे बढ़ती रही, लोग शामिल होते गए और उनकी अगुवाई में लड़ते रहे। इस प्रकार ग्वालियर तथा जबलपुर के सैनिकों के सहयोग से सफल सैन्य रणनीति का प्रदर्शन करते हुए वे लखनऊ पहुँचे। इसके बाद उन्होंने आजमगढ़ की ओर कुच लिया। 22 मार्च 1858 को भीषण युद्ध के पश्चात बाबू कुँवर सिंह ने आजमगढ़ पर कब्जा कर लिया। बाबू कुँवर सिंह ने एक बार फिर आजमगढ़ में अंग्रेजों को हराया। इसी प्रकार अंग्रेजी सेना को परास्त करते हुए 23 अप्रैल, 1858 को उन्होंने जगदीशपुर में स्वाधीनता की विजय पतांका फहरायी। इसी दिन विजय उत्सव मनाते हुए यूनियन जैक (अंग्रेजों का झंडा) को उतारकर अपना झंडा फहराया गया।

इस समय तक बाबू कुँवर सिंह की उम्र 80 वर्ष हो चुकी थी। एक कवि ने उनकी उम्र एवं उनके रण कौशल को देखते हुए लिखा है-

अस्सी वर्षों की हड्डी में, जागा जोश पुराना था,
सब कहते हैं, कुँवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था।

स्वाधीनता सैनानी बाबू कुँवर सिंह युद्ध कला में पूरी तरह कुशल थे। छापामार युद्ध करने में उन्हें महारत हासिल थी। कुँवर सिंह के रण कौशल को समझने में अंग्रेजी सेना नायक पूर्णतः असमर्थ थे। दुश्मनों को उनके सामने से या तो भागना पड़ता था या कटकर मरना पड़ता था। भारत माता का एसा महान सपूत 26 अप्रैल, 1858 को इस संसार से हमेशा-हमेशा के लिए विदा हो गया। प्रसिद्ध कवि मनोरंजन प्रसाद सिंह ने
सत्य ही लिखा है-
चला गया यों कुँवर अमरपुर, साहस से सब अरिदल जीत,
उसका चित्र देखकर अब भी, दुश्मन होते हैं भयभीत।
वीरप्रसविनी भूमि धन्य वह, धन्य वीर वह अनन्य अतीत,
गाते थे और गावेंगे हम, हरदम उसकी जय की गीत।
वह स्वतंत्रता का सैनिक था।
आजादी का दीवाना था।

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